बचपन की सांस्कृतिक यात्रा
कम्प्यूटर पर रेस बाइक पर मोटर पर और भी न जाने कितने गेम खेल नही कहूॅगी क्योकि खेल के नाम पर हम हिन्दुस्तानी हो जाते हैं और आज कल बच्चों की दुनिया भारत को इंडिया के रूप मे जी रही है। पहले कम्प्यूटर पर फिर वास्तविक जगत मे द्रतुगति से वाहन भीड़ भरी सड़कों पर दौड़ाना उनका शौक है शान है जीवन है क्योकि बचपन ही उन्होंने कम्प्यूटर पर प्ले स्टेषन पर गेम खेल कर ही बिताया है। बचपन क्या होता है वे नही जानते हैं। परिवार है ही नहीं तो दादी नानी की कहानी कहाॅं से सुनें। वे आया से चुपचाप सोने की कह या बैठे रहने की डांट सुन अकेले कमरे में स्टफ्ड खिलौनों को संगी साथी बनाकर तेजी से बडे होते हैं।
तेजी से बडा होने से तात्पर्य है आजकल बच्चा अपने समय से कहीं ज्यादा मैच्येार है छोटे से दो साल के बच्चे के हाथ में मोबाइल का खिलौना होता है और पींठ पर ढेर सारी किताबें जो किताबी ज्ञान देती हंै। यथार्थ की दुनिया से बहुत दूर कहीं दूर कल्पना की दुनिया उनको घेरे रहती है और कल्पना की दुनिया भी स्नेहिल कोमल परियों के पंखो के साथ तारा मंडल में घूमना तितली पकड़ना या फूलों से बात करते हुए बौनों की दुनिया में जाकर जादुई घोडे़ पर सबार होकर सात समुंदर पार जाना नही है। है हिंसक एलियंन्स के अजीब गरीब चेहरे और केवल मार धाड, दो ग्रहो के बीच युद्व या तरह तरह के जीवांे का हमला सिर्फ हिंसा और ंिहंसा। अकेलेपन और हिंसा कंे दृष्यो के बीच पलता बढ़ता बचपन कितना अलग है हमारे अपने बचपन से।
हमें दो पंडित जी पढाने आते थे एक पंडित जी सुबह आते थे एक पंडित जी शाम को। सुबह बाले पंडित जी का नाम था पंडित प्यारे लाल भरे पूरे ष्षरीर और तोंद वाले पंडित जी धोती कुर्ता पहनते थे गरमी के दिनों में कुर्ते की जगह बिना बांह की कुर्ती सी पहनते गेहु्रआ रंग। पढने के कमरे में पंडित जी के आने के समय चटाई बिछ जाती। हम चार बच्चे पढते दो भाई मै और अब छोटा भाई ,बडी बहन कुछ ही दिन पढी फिर शयद उनकी क्लास ऐसी हो गई थी जिसे वे नही पढा सकते थे। सुबह वाले पडित जी को कहा ही मोटे पंडित जी जाता था वे हमे हिंदी पढाते थे जैसे जैसे हम भाई बहन एक एक कर स्कूल जाने लगे पढ़ने बाले कम होते गये शाम को पंडित जी आते वे पतले दुबले थे। धोती कुर्ता तो वो भी पहनते मोटे पंडित जी गावतकिये को खिडकी के दरवाज पर लगा लेते थे खिडकी से ठंडी हवा आती और शीघ्र ही हमे लिखने के लिये दे वे झोंके लेने लगते और एक एक कर हम सब फुर्र धीरे धीरे पंडित जी को देखते हुए सरकते जाते। माॅ सामने दूसरे कमरे में से देखती रहती वो आवाज लगाती ,‘‘पंडित जी’ ’और पेडितजी चैककर सीधे हो जाते और हमसब भी भोले भोले चेहरे बनाकर आ बैठतै पंडित जी मारते नही थे पर डंडी फटकरते ,‘कहां गये थे’ किसी को प्यास लगी होती थी कोई एक ऊॅगली उठाता कोई दो उंगली और फिर अपनी अपनी तख्तियों पर झुक जाते।
सब मंे आपस मे होड लगी रहती किसकी तख्ती ज्यादा साफ चमकदार है पेन्ट से सफेद लाइन बनायी जाती ,बडी सुंदर सी सीेपी से उसे घिसते थे तख्ती एकदम चिकनी हो जाती जब ज्यादा बदरंग हो जाती तब कोलतार से उसे फिर पेन्ट कराया जाता तब तक सलेट भी आ गई थी उस पर भी लिखना सिखाया गया। जैसे कि बच्चों मे धुन होती है सलेट साफ रहे इसलिये हर कपडे का प्रयोग किया जाता खास तौर माॅ के रूमाल । हम चुपके से लेकर भिगोकर सलेट पौछते तब माॅ बाजार का खरीदा रूमाल नही उपयोग मे लाती थी। मलमल के टुकडे पर कोने में कढाई करती थी कभी जाली लगा कर क्रासस्टिच से फूल बनाती या छोटी सी फुलकारी। चारो और किनारे पर रंग बिरंगे धागे से कढाई करती कितने ही प्रकार की डिजाइन बनाती। हम बच्चो को सबसे सुविधा जनक वही कपडा लगता। माॅ देखती कहती और ,‘मिटो यह क्या किया मुझसे मांग लेते कपड़ा ’ अपनी मेहनत की दुर्दषा पर खीझती पर हमारे लिये वह महज कपड़ा था बेकार कपडा जिससे पसीना पौछा जा सकता है तो सलेट भी पौछी जा सकती है।
आज अपनी कई इसी प्रकार की नादानियों पर हंसी भी आती है क्र्रोध भी। माॅ सफेद हरे लाल रंग बिरंगे मोतियों से जिन्हें पोत कहती थीं बहुत सुन्दर सामान बनाती थी चैपड़, पैन का कवर, पसर्, दवात का कवर, रूमाल का केस आदि बनाती थी। मोती इकटठा करने के चक्कर में हम उन्हे तोड़ तोड़ कर अपनी डिब्बी भी भर लेते थे।नानी का लाड़ हम पर अधिक था। नानी अपना खाना अपने आप बनाती थी उनका कमरा मामा घर की दूसरी मंजिल पर ही था । हम लोग कभी मामा के घर आ जाते कभी मामा जी के यहां से बच्चे हमारे घर आ जाते अधिकतर हम ही जाते। नानी देखती चुपके से इषारे से अपने पास बुला लेती और अंदर तिवारी में ले जाकर लडडू खिलाती ,‘लाली चुपचाप खा ले’ अभी विष्नुु ओमी आ जायेंगे तो खा जायेंगे । विष्णु ओमी स्वयं उनके पोते ही थे लेकिन हम पर नानी का प्यार ऐसे ही उमडता था। चुपचाप हथेली मंे एक आना दो पैसे थमा देती। सुबह मंदिर आती तो कभी कभी घर पर आती कभी ऊपर नही आती पिछले दरवाजे पर कुंडी खटखटा खड़ी रहती। नानी की जो छवि आज भी आंखांे मे घूमती है दादी नानी के नाम पर वही बनती है नानी का चेहरा निरीह सा दुबली ढीला ढीला ब्लाउज सफेद सीधे पल्ले की सूती धोती। सफेद ही चादर मेरी माॅं का नानाजी की मृत्यु के महिने भर बाद जन्म हुआ था। उन दिनों मथुरा षहर में महिलाऐं चादर ओढ़ती थीं । चादर ढाई गज का सिल्क मलमल आदि का कपड़ा होता था ये टिष्यू के जरीदार कढ़ाई वाले भी होते हैं जिसे दुप्पट्टे की तरह लपेटती थीं आज भी चैबन दुप्पट्टा ओढ़कर ही निकलती हैं। नानी कभी डिब्बे मे लडडू कभी बरफी कभी हलुआ ले आती। बसंत पंचमी पर नानी का इंतजार रहता वो हमारे लिये बेर गुडडे गुडियों का सैट लाती । नानी घर के दरवाजो पर मोती सीपी की रंग बिरंगी झालर लगी रहती थी हम लडियां तोड लेते और मामी की तीखी आवाज से भाग लेते। आज अपने पोते पोतियों के सामान बिगाडने पर क्रोध आता है तो साथ ही अपनी हरकतंे भी ध्यान आ जाती है आज कोई चीज हम नही सजा पाते तब भी सजावट को केैसे बिगाड देते थे। उन मोती सीपियों से फिर तरह तरह की मालाएं लटकन बनाते गुडडे गुडियों के जेवर बनाते।